Monday, August 27, 2012
Sunday, June 14, 2009
Friday, April 3, 2009
अब हम एक अन्य पहलू की तरफ ध्यान दें. देखें कि क्या कोई और भी रास्ता है जिसके द्वारा किसी व्यवस्था को सफतापूर्वक चलाया जा सकता है. एक रास्ता है, और वह है सिस्टम को नियंत्रित तरीके से व्यवस्थित करने का. इसके द्वारा किसी एक समूह के द्वारा अन्य समूह की तमाम गतिविधियों का संचालन किया जाना. ऐसा ही मानवीय इतिहास के विभिन्न युगों में होता रहा है. लेकिन आधुनिक युग के साथ इस स्थिति में परिवर्तन देखा गया जब व्यक्ति की अपनी गरीमा ने सामुहिकता के उपर वर्चस्व स्थापित करना प्रारम्भ किया. मनुष्य की पहली पहचान एक व्यक्ति के रूप में होने की बात युरोप में रेनेसाँ के प्रमुख लक्षणों के रूप में किया जाता है. आज का मनुष्य आवश्यक रूप से पहले एक व्यक्ति है फिर समष्टि का भाग. उसे एक व्य्क्तित्व के रूप में सोचने, जीने, व्यवहार करने, आदि की पर्याप्त छूट समाज द्वारा प्रप्त है. स्वयं समाज ने मनुष्य के व्यक्तिगत इयत्ता को काफि सशक्त तरीके से मान्यता दी है. ऐसे में किसी एक समुह द्वारा अन्य के उपर शासन की अवधारणा आज व्यवहारिक स्तर पर काफी सिमित हो हो गया है. गणतांत्रिक पद्धति की शासन प्रणाली में शासक और शासित का फर्क किसी सिद्धांत का हिस्सा नहीं बल्कि एक व्यवहारिक पहलू मात्र है. ऐसे में एक सफल सामाजार्थिक व्यवस्था की सफलता के लिये एक केन्द्रियकृत नियंत्रित उपाय की स्वीकार्यता सम्भव नहीं लगता. इस प्रकार कि नियंत्रित शासन प्रणाली के जो रूप हमारे सामने उपस्थित हैं उनमें से एक समाजवादि व्यवस्था की असफलता के पीछे एक कारण इस परिप्रेक्ष्य से भी जुड़ा हुआ है. यहाँ समाजवाद के खिलाफ इस तर्क का यह मतलब कदापि नहीं लगाया जा सकता कि हम पूँजीवाद को एक उत्तम व्यवस्था के रूप में रेखांकित कर रहे हैं. यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि आज का मनुष्य 'नियंत्रण' की अवधारणा से घबड़ा जाता है. पिछले 100 वर्षों के समाजवादी अनुभव ने एक ओर जहाँ कई तरह की सफलताएं अर्जित की तो दूसरी तरफ हम इसकी असफ्लताओं से निगाहें नहीं चुरा सकते. जिन देशों में समाजवादी सिद्धांतों के आधार पर शासन व्यवस्था कायम हुई, चलीं वहाँ यकायक ऐसा क्या हुआ कि लोगों में इसके प्रति आक्रोश भरक उठी. आज किसी भी पुरानी व्यवस्थावाले देश में समाजवादी तरीके सरकारों को जन समर्थन नहीं मिल रहा. समाजवाद मूलतः मानवीय अतिविधियों को नियंत्रित करने की अवधारणा पर आधारित व्यवस्था है. और यह नियंत्रण किस हद तक होनी चाहिये, इसका कोई सुनिशित सीमा रेखा निर्धारित नहीं. इस नियंत्रणात्मक प्रवृत्ति ने समाजवादी देशों में अमानवीय हदों तक पहुँचनेवाली सरकारों को भी जन्म दिया, जिसके ऊपर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं देखा गया. एक उदारवादी लोकतांत्रिक समाज में ऐसी सरकारों के उपर किसी न किसी प्रकार का एक नियंत्रण देखा गया है जिसने निरंकुशता का विनाश करता है. इसके अलावा, उदारवादी लोकतंत्र एक स्वतः नियंत्रित, स्वतः विकसित होती हुई व्यस्था के रूप में सही साबित हुई है. इसके साथ ही यह ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस व्यवस्था से जुड़ी समस्याओं का निराकरण इसके अन्दर ही सम्भव हैं. भारत जैसा बहुविध, बहुजातिक, बहुभाषिक देश अपनी उदारवादी लोकतंत्र की सफलताओं के साथ बड़ी-बड़ी सामाजिक समस्याओं से जूझने में समर्थ हो पाया है. कितने ही विकासशील देश तरह-तरह की अलोकतांत्रिक यात्राओं के बाद इसी ओर अग्रसर हुए हैं. ऐसे सभी देशों में उदारवादी लोकतंत्र की ज़ड़ें जमती दिख रही हैं. इसके पीछे मनुष्य की स्वतंत्र रहने की प्रवृत्ति काम करती हैं.
Saturday, February 28, 2009
मैं बिहार हूँ
विहारों के आंगन में
जन्मा मैं
बहारों ने सींचा मुझे
मैं अल्हर जवानी
बेकरार हूँ
मैं बिहार हूँ
मैं हूँ
भारत का वो सुनहला अद्ध्याय
बिखरे हैं पन्ने जिसके
गंगा के निर्जन
तट पर
मैं नदी की
चमकती धार पर
सोया हुआ पतवार हूँ
मैं बिहार हूँ
बहके हुए कदमों का
दिशाहीन मैं राही
सपनों में खोए हुए
पलकों का मैं सायी
बस, यूँ ही भटका सा
एक सहर्षहार हूँ
मैं बिहार हूँ
थककर मैं सोता नहीं
दिल्ली-कलकत्ते की
उष्ण-प्रखर सड़कों पे,
मुम्बई की रेलों पे दौड़ती
इस्पाती विकराल पे
दुबका मैं कोने में
चिपका श्रमसार हूं
मैं बिहार हूँ
Toward the end of 2008
Saturday, February 14, 2009
हवा में में घुली हुई
यादों की महक
मानो फैल रही है,
धूप को आगोश में लिये
वसंत आवारा
टहलने लगा
घर के दरवाजे पर
झाँकने लगा लुक-छिप
खिड़कियों से अन्दर
रजाई में दुबके
सोये हुए अहसासों को ।
बदलेपन के ऐसे मोड़ प
तुम पास चले आते हो
परायेपन का बन्धन तोड़कर
वसंत के हल्के आहट में
महकती साँसों को
छुपाये हुए
झूठे एकाकीपन की
नर्माहटों में ।
20-01-2009, सुबह 10.20
Wednesday, November 19, 2008
मनोहर
मेरे क्लास का सबसे तेज लड़का, जो मेरे दोस्तों में से एक नहीं होते हुए भी मुझे काफी पसन्द था, मनोहर आज जाने कहाँ है. मेरी नजर में वह एक ऐसा लड़का था जिसमें टौम स्वेयर और हकल्बरी फिन, दोनो की विशेशतायें मिल जा सकती हैं. अगर मैं उसकी तुलना अपने आप से करूँ तो समानता ढूँढने पर ही मिलेगा. वह मेरे क्लास का सबसे चमकनेवाला सितारा था जो पढाई में अव्वल आने के साथ साथ किशोरावस्था के तमाम बहकते कदमों में महारत हासिल करने के कारण जाना जाता था. पहली बात कि वह अपने नाम के अनुकूल मनोहर दिखता था. चेहरे पर मुस्कुराहट खिली रहती. उसके निचले ओठ के पास जो एक बड़ा सा तिल था, वह उसके शरारती मुस्कुराहट को और भी उजागर कर देता. उसे देखकर कोई यह अन्दाजा नहीं लगा सकता था कि वह क्लास में अव्वल आने वाला लड़का है. पढाई करने की गम्भीरता जैसी बात उसमें दिखती नहीं थी. पढाई के अलावे अन्य क्रिया-कलापों में रुचि लेने की जहाँ तक बात है तो वह सिगरेट से लेकर लड़कियों, और उससे जुड़े तमाम लफड़ों से सहज जुड़ाव रखता था. मैं इन सब बातों से दूर एक गम्भीर किस्म का लड़का था जो अपने स्वच्छतापूर्ण गाम्भीर्य के कारण अपने मित्रों द्वार दिये गये मजाकिये विशेषणों से विभूषित हुआ करता. मनोहर खेल-कूद में भी काफी रुचि लेता, जहाँ मैं एक दर्शक की भूमिका से कभी आगे नहीं बढ पाया. मनोहर मुझसे काफी आगे रहा करता जहाँ मेरी उससे प्रतिद्वन्दिता का कोई प्रश्न नही था; शायद इसीलिये मैं उसे काफी पसन्द करता था. उसने जो एक दूरी मुझसे बनाकर रक्खा, उस दूरी से मैंनें उसे बहुत प्यार किया; इसीलिये दिल आज बार-बार पूछता है कि वह कहाँ है?
सातवें क्लास तक मैं विलियम्स हाइ स्कूल मे पढा. इसके बाद यहाँ की कुछ व्यवहारिक परेशानीयों और तिलकधारी हाइ स्कूल में अच्छी पढाई की चर्चा के कारण इस नये स्कूल में आ गया. यहाँ पढाई का माहौल सचमुच विलियम्स स्कूल से काफी अच्छा था. मनोहर क्लास का अव्वल लड़का था, दूसरे तीसरे नम्बर पर जयराम और रंजीत थे. रंजीत से मेरी बड़ी गहरी दोस्ती हो गयी. खैर, नये जगह पर पड़ाई का अनुभव कफी अच्छा थ. सबसे अगले बेंच पर बैठने का रुतबा(!) नहीं होने के बावजूद रंजीत और कुछ अन्य लड़कों की सहायता से आगे बैठने का जुगार हो जाता था. कुछ दिनों में मैनें अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रहा. क्लास के टीचर मुझे बड़े कायदे कानून और उच्च संस्कारों वाला छात्र मानने लगे थे. शहर में पापा की सम्मानपूर्ण हैसियत का लाभ मुझे मिलने लगा. मनोहर, जयराम, रंजीत और बाल्कृष्ण जैसे लड़कों में मेरी पूछ धीरे धीरे बढने के पीछे क्लास मे मेरे जवाब देने की क्षमता एक कारण था. फिर भी मैं परीक्षा में कोई विशेष हैसियत नहीं बना पाता. रिजल्ट आने पर वही लड़के हर बार फतेहयाब होते. वास्तव में मैं कभी उनके साथ प्रतिद्वन्दिता में पड़ना ही नहीं चाहता था. क्यों? शायद इसलिये कि पापा ने बार बार अच्छी पढाई पर जोड़ डालने की बात करते, न कि परीक्षा में सिर्फ अच्छे नम्बर लाने कि. और शायद, ऐसा भी हो सकता है कि प्राथमिक पढाई गाँव मे करने के कारण जो एक हीनताबोध रहा, उसके कारण क्लास के अव्वल लड़कों को पछाड़्ने की इच्छाशक्ति ही नहीं बन पाई हो. लेकिन इतना जरूर है कि क्लास में शिक्षकों के प्रश्नों के उत्तर देने के क्रम में कभी ऐसा नहीं लगा क़ि मैं मनोहर या किसी अन्य से पीछे रहा हूँ. फिर भी मैं इतना अवश्य मानता था कि मनोहर मुझसे ज्यादा जानता है. यही बात जयराम या अन्य किसी लड़के के बारे में मैं नहीं मानता. मनोहर के प्रति मेरे मन में एक सम्मान जैसा कुछ था जिसका कभी मैंने कहीं जिक्र नहीं किया.
मनोहर का नाम जहन में आते ही एक और नाम सहज ही उभर आता है वह है ‘चन्दा’. सुपौल शहर की वो खूबसूरत लड़की जो मनोहर से दो साल जूनियर थी, उसने इस लड़के पर ऐसा जादू चलाया था कि आये दिन उससे जुड़े किस्से स्कूल में सुर्खियों में फैला रहता. वास्तव में वह लड़की अपने खूबसूरती के जलवे से शहर के कई लड़कों को अपने प्रेम पाश में बान्धे हुई थी. मनोहर उन कई दीवानों में एक था. अच्छी तरह याद है वो लड़की. गोरी-गोरी साधरण कद की वो छोरी सचमुच चान्द सी खूबसूरत थी. उसकी अदाएँ जानलेवा थी. इतनी कम उम्र में ही उसने अदाओं को जिस महारती के साथ आत्मसात किया था उसे हमारे समाज में चालुपन का नाम दिया जाता है. उसकी अदाओं में चिपके दीवानों की प्रतिद्वन्दिता शहर के चटपटे कोने का एक अभिन्न अंग था. ऐसी बातों में रुचि लेने वाले बेसब्री से ‘चन्दा’ से जुड़े प्रसंगों को जानने को उत्सुक रहते. विशेशकर स्कूल में लड़के(और शायद टीचेर्स भी) ‘न्यू डेवेलपमेंट के प्रति जागरुक रहते. स्कूल पहुँचते ही च्न्दा और मनोहर से जुड़ी खबरें स्वनियुक्त सम्वाददाताओं और प्रसारकों द्वारा चहुँ ओर प्रसारित होने लगती. लड़के दो चार के गुटमें बँटे इन घटनाओं पर मजेदार अन्दाज में विश्लेषण करते नजर आते, जब तक कि क्लास टीचर आ न जाँएँ.
घटनाएं क्या होती थी, चन्दारानी के प्रतिद्वन्दियों में मुठभेरों की दास्तानें होती. इन दास्तानों में मनोहर की स्थिति मजनूं जैसी थी. वर्णन होता कि कैसे मनोहर अपने कुछ सहयोगियों के साथ चन्दारानी का पीछा किया और उनके पीछे मनोहर के राइवल लड़कों ने उन्हे कहाँ धर दबोचा. उसके प्रतिद्वन्दी उससे काफी सबल होते, नतीजतन मनोहर अक्सर ही रिसीविंग एन्ड प होता. घटनाओं में अक्सर ही मनोहर के पिटने का जिक्र होता. मसलन ‘आज मनोहर गंगा टॉकीज के पास पिट गया’ तो किसी रोज महाबीर चौक से जुरी खबर होती. इसमें विशेश यही हो सकता था की कल मनोहर के पापा ने उसकी जमकर धुलाई की. वास्तव में मनोहर के पिता काफी कड़े स्वभाव के थे. वह मनोहर की पढाई के प्रति बड़ा सख्त रुख रखते थे. मनोहर की पढाई के बाहर लफ्फासोटिंग जैसे एक्ट्रा कैरीकुलर एक्टिविटी से सख्त नफरत थी. मुझे याद है एक बार वो अपने कोर्ट कलीग्स के साथ मेरे डेरे पर पहुँचे. करीब तीन बज रहा था. मैं उस समय सोकर उठा था. अचानक ही चार –पाँच लोगों को देखकर मैं थोड़ा घबराया भी. उन लोगों ने मुझसे मनोहर के बारे में तफ्सील से पूछताछ की. वह कब स्कूल पहुँचता है, किन लड़कों के साथ रहता है, क्या कभी दोपहर में क्लास छोड़कर बाहर भी जाता है, आदि आदि. मनोहर के पापा पीची की तरफ बैठे थे, उन्होंने मुझसे कुछ ज्यादा नहीं पूछा. यहाँ ध्यान देनेवाली बात यह थी कि उन लोगों ने क्लास के सभी लड़कों में सिर्फ मुझे ही इतना सच्चा समझा कि मुझसे पूछताछ की.
मनोहर के बारे में मैनें बड़े सन्यमित ढंग से उस तफ्तीसी दल को सूचनाएं दीं. मेरे मन में मनोहर के लिये जो एक प्यार था उसने मुझे उसके प्रति निर्दयी बनकर सच्चाई बताने से रोका था. वास्तव में मनोहर और चन्दारानी के रोमैंटिक प्रसंगों में लड़के( और टीचर्स भी) काफी रुचि लेते थे. ये सब स्कूल कॉलेज के स्वादहीन रुटीनस-माहौल में एक तरो-ताजगी भरा लीजर ब्रेक की तरह होता है जिसमें हर कोई किसी न किसी रूप में अपनी हिस्सेदारी निभाना चाहता है. मनोहर की पडाई पर इन सब का कैसा असर पड़ा यह एक अध्ययन का विशय हो सकता है. मैने पहले ही बताया है कि पढाई में मैं उससे कभी कोई प्रतिद्वन्दिता नहीं रक्खा. वह लगातार क्लास मे फर्स्ट आता रहा, जयराम और बाल्कृष्ण उसके पीछे दूसरे और तीसरे पायदान पर बने रहे. मैं पहले की तेरह क्लास में अपने पोजीशन से अनजान अपनी धुन में चलता रहा.
उस दिन शायद 10वीं जुलाई था. शाम को सत्कार होटल के सामने प्रीतम के साथ टहल रहा था कि किसी ने बताया कि दसवीं का रिजल्ट आ गया है. बड़ा अजीब अनुभव हुआ. रिजल्ट आ गया है! इससे पहले रिजल्ट के बारे में सुनकर कभी ऐसा अहसास नहीं हुआ था. उत्सुकता और हल्का भय आस-पास फैला हुआ लगा. जैसे तैसे शाम से रात, रात से सुबह हुई. रात ख्वाब क्या देखा, कुछ याद नहीं. खैर सुबह 10 बजे स्कूल पहुँचा. चारो तरफ शोर था, मनोहर 628 अंकों के साथ अव्वल स्थान पर बरकरार था. उसी उत्सुकता और भय जैसी कोई चीज के साथ हेडमास्टर साहब के कमरे में पहुँचा. टेबुल पर रिजल्ट शीट फैला था. हेडमास्टर साहब ने मुझसे पूछा “क्या हुआ तुम्हारा रिजल्ट?’. मैने कहा अभी देखना है. रिजल्ट शीट खोलकर देखना शुरु किया. कई नामों से निगाहें गुजरते हुए अपने नाम जैसे ही किसी शब्द पर जाकर रुका. वो मेरा ही नाम था. उंगलियों के सहारे अलग अलग विशयों के मार्क्स से होता हुआ टोटल पर पहुँचा—649! अचानक विश्वास नहीं हुआ. ‘सर मेरा टोटल मार्क्स 649 है’, उन्होंने बिना मेरी तरफ देखे हि कहा ‘उसमें से एक विशय का मार्क्स काटा जायेगा”, लेकिन उससे आगे जो देखा तो लगा मेरे पाँव के नीचे रूई जैसी कोई चीज आ गये है. टोटल अग्रीगेट में मेरा मार्क्स 750 से ज्यादा था, यानी मेरे 649 एक सब्जेक्ट के एक्स्ट्रा मार्क्स को काटकर बनता था. हेडमास्टर साहेब को हठात् विश्वास नहीं हुआ, उन्होंने रिजल्ट शीट अपनी ओर खींचते हुए गौर से देखना शुरु किया. हल्की उधेरबुन के बाद कहा ‘हाँ ये तो सही है, तुम्हारा मार्क्स स्कूल मे सबसे ज्यादा है, तुम फर्स्ट आये हो’. असाधारण अनुभूति का एक ज्वार सा उठा मन में. मेरे क्लास टीचर श्री ब्रह्मदेव राय हेडमास्टर के कमरे में पहुँचे, एक-एक क़र और भी टीचर आस पास जमा हो गये. कुछ को लग रहा था जैसे रेस में किसी ब्लैक हौर्स ने बाजी मारी है तो कई ऐसे भी थे जो मान रहे थे कि यह तो एक डिजर्विंग कैंडिडेट की उपलब्धी थी. इसके बाद सारे स्कूल फिर शहर में मैं मशहूर हो उठा. मनोहर का 628 अब द्वितीय स्थान पर था.
इसके बाद मेरे प्रति मनोहर के व्यवहार में एक गुणात्मन परिवर्तन आया. वह मेरे घर भी आया. मैं उसके प्रति पहले से ही आकर्षित था, अब उसके व्यवहार ने मुझे उसके और करीब ला दिया था. इस समय तक उसके धर में और भी कई तरह की परेशानियाँ ले आयीं थीं. उसके पिता कैंसर से पीड़ित पाये गये. मनोहर अपनी पढाई अच्छी तरह नहीं चला पाया. इंजिनीयरिंग की परिक्षाओं में उसे सफलता नहीं मिल पाई. आइ. एस. सी. के बाद ही उसने एअर फोर्स में एअर-मैन की नौकरी कर ली. नौकरी में जाने के बाद उसने शायद बंगलौर से एक अंतर्देशीय पत्र मुझे लिखा था. बड़ा अपनापन था उसमें. उसके बाद कोई सम्पर्क नहीं हो पाया. उसके पिताजी का ट्रांस्फर मधेपुरा हो गया था. वहीं उनका देहावसान हुआ. उसके बाद सुना था कि उनके स्थान पर मनोहर के छोटे भाई को नौकरी मिल गयी थी. मनोहर की एक बहन जो पढने में काफी तेज थीं, उनसे भी मैं कई बार मिला था. उन सब से आज कोई सम्पर्क नहीं है, फिर भी मनोहर एक हँसते हुए चेहरे सा मानस पटल पर अंकित है.